Moral Story in Hindi About an Ordinary Man’s Loyalty
“मम्मी मम्मी देखो चन्दन पुकार रहा है| उसे बुला लो ना| हम मिठाई लेंगे,” कहते हुए रतन ने अपनी माँ का आँचल खींचा| “हाँ हाँ मम्मी, मैं आज गुलाबी वाली लूँगी,” शालिनी ने भी हाँ में हाँ मिलाई| निर्मला ने बच्चों की ज़िद के आगे हार मान ली और खिड़की के पास जाकर आवाज़ दी, “अरे चन्दन भैया आना ज़रा| रतन और शालू बुला रहे हैं तुम्हे|” “अभी आया बीबीजी,” चन्दन ने बैग सँभालते हुए कहा|
बरामदे में आ उसने अपना बैग खोला और मिठाइयों के डब्बे निकलने लगा| “हाँ रतन भैया, कौन सा लोगे और तुम मुन्नी, तुम्हे तो यह लड्डू पसंद है ना?” चन्दन ने दोनों बच्चों के हाथ पर एक एक मिठाई रख दी|
निर्मला ने पैसे देते हुए कहा, “चन्दन तुम्हारी मिठाइयाँ बहुत ताज़ी होती हैं| दुकानों में भी इतनी अच्छी नही मिलती| लेकिन तुम पैसे क्यूँ कम लगाते हो?” चन्दन ने मुस्कराते हुए कहा, “दीदीजी, कहूँ ना आपको दीदी? हाँ तो मैं पैसों के लिए नहीं aata, मैं तो बच्चों के लिए घूमता हूँ| मुझे उनसे बड़ा लगाव है| घर में पैसों की तंगी नही है|”
“चन्दन तुम तो बिलकुल पागल हो| लोग यहाँ सभी को लूटने में लगे हैं और तुम तो बच्चों को आते ही एक एक मिठाई वैसे ही खिला देते हो| इतना नुक्सान क्यूँ उठाते हो?” “दीदीजी मेरा नुक्सान नही बल्कि फाएदा होता है| जब रतन और शालू मुझे अपना हँसता हुआ चेहरा दिखाते हैं, तब जो आनंद का अनुभव मुझे होता है उसका अंदाज़ा आप नही लगा सकतीं हैं,” चन्दन ने मुस्कराते हुए कहा|
शाम हो जब बच्चों के पापा ने चाय के साथ मिठाई देखि तब कहने लगे, “लगता है चन्दन आया था| क्यूँ सच कहा ना निम्मो?” “हाँ पापा, पर आपने कैसे जाना?” रतन और शालू एक साथ बोल उठे| “अरे मिठाई की ताज़गी से मैं समझ गया|” “हाँ, सच मे, चन्दन की मिठाइयाँ अच्छी होती हैं, खासकर सन्देश तो बहुत ही स्वादिष्ट है,” निर्मला ने चाय का प्याला रमेश को देते हुए कहा|
थोड़े दिनों बाद ही बच्चों के इम्तेहान थे, इसलिए निर्मला बहुत व्यस्त रेहने लगी थी| घर के काम के अलावा बच्चों को पढ़ाना भी पड़ता था|
सोमवार का दिन था| बच्चों को इम्तेहान के बाद एक दिन की छुट्टी मिली थी| घर के पास वाले पार्क में सर्कस का शो लगा था| बच्चे बहुत ज़िद्द कर रहे थे|
निर्मला के पति उस दिन ऑफिस में ज़्यादा काम के कारण देर से आने वाले थे| सर्कस शुरू होने में सिर्फ बीस मिनट बचे थे| बच्चे तैयार थे पर निर्मला के सर में बड़ा तेज़ दर्द था और उससे उठा नही जा रहा था| वह बच्चों को निराश नही करना चाहती थी पर तबियत ख़राब होने से उसे समझ नहीं आ रहा था की वह क्या करे|
इतने में घंटी बजी| खोला तो चन्दन को खड़ा पाया| “दीदीजी बहुत दिनों से रतन भैया और मुन्नी को नहीं देखा इसलिए चला आया| क्या बात है, आपका चेहरा क्यूँ फीका पड़ रहा है?” “आओ चन्दन बैठो,” कहते हुए निर्मला ने उसे अपनी सारी परेशानी बताई| सुनकर चन्दन बोल पड़ा, “तो इसमें परेशानी ही क्या है दीदी? आप आराम कर लो| मैं बच्चों को सर्कस दिकाए लाता हूँ| चलो बच्चों|” “अरे चन्दन, तुम्हारे फेरी का क्या होगा? कितना नुक्सान हो जायेगा|” “फिर वही बात दीदी, कुछ नही होगा| आप दवा लेकर सो जाइये| शो ख़तम होते ही, मैं इन्हें ले आऊंगा और यहाँ कोने में मैं अपना बैग रख देता हूँ|”
“मम्मी हम जाएँ?” बच्चों की मिन्नत भरी आँखों के आगे निर्मला को झुकना ही पड़ा| “ठीक है जाओ, पर चन्दन भैया को बिलकुल तंग मत करना,” निर्मला ने बच्चों को रूमाल पकड़ाते हुए कहा|
“अरे दीदीजी, आप चिंता क्यूँ करती हैं? शालू और रतन मेरे भी तो बच्चों समान हैं| वह मुझे बिलकुल तंग नही करेंगे| क्यूँ बच्चों, जल्दी चलो नहीं तो शो शुरू हो जाएगा|” “चन्दन, बच्चों को मैंने टिकेट के पैसे दे दिए हैं|” “ठीक है दीदी| अब हम चलते हैं| बच्चों रुको, मेरा हाथ पकड़ लो,” चन्दन ने बैग रख दोनों बच्चों का हाथ पकड़ लिया| रतन और शालू माँ को टाटा करके ख़ुशी-ख़ुशी चले गए|
बच्चों के जाते ही निर्मला ने दरवाज़ा बंद किया और फिर सर दर्द को गोली खाकर लेट गई| गोली ने असर दिखाई और उसे नींद आ गई| उठी तो सवा सात बज रहे थे| उसने झट अपने लिए चाय बनाकर फिर रात के खाने की तय्यारी मे लग गई|
देखते ही देखते आठ बज गए पर बच्चों का कहीं पता न था| अब निर्मला थोड़ा घबड़ाने लगी| उसने सोचा सात बजे शो ख़तम हुआ होगा| अब तक तो उन्हें आ जाना चाहिए था| घड़ी ने जब साढ़े आठ बजा दिए तो वापस पसीना पोंछते हुए बाहर आ खड़ी हुई| मन मे आया की चन्दन तो बहुत बेकार निकला| ना जाने बच्चों को कहाँ ले गया| लोगों की बातें दिमाग मे घूमने लगीं| आजकल सब जगह ठग घूमते रहते हैं| किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए|
घबराकर उसने नलिनी को फ़ोन किया| वह उसकी सबसे प्यारी सहेली थी| “अरे निम्मो, तुमने एक फेरी वाले के साथ बच्चों को भेज दिया| दिमाग ख़राब है क्या? किसी पर इतना भरोसा कैसे? अच्छा सुनो, आधे घंटे और देख लो नहीं तो भाई साहब को फ़ोन करो| वह पता लगा लेंगे| मुझे भी बताना क्या हुआ| आधे घंटे तक तुम्हारा फ़ोन नहीं आया तो मैं सुभाष को लेकर आ जाउंगी| अच्छा, रखती हूँ, तुम घबराओ मत.”
रमेश को बताने के बात से ही निर्मला काँप उठी| उसने सोचा बहुत डांट पड़ेगी| मैं भी कितनी पागल हूँ| क्यूँ भेजा मैंने बच्चों को चन्दन के साथ| पता नहीं कहाँ ले गया होगा| सोच सोच कर जब निर्मला ने घड़ी में नौ बजते देखा तब ताला लगाकर खुद ढूँढने निकल पड़ी|
अभी घर की गली के नुक्कड़ तक पहुंची ही थी की शालू के रोने की आवाज़ सुनाई दी और उसने बच्चों सहित एक घायल से चन्दन को आते हुए देखा| बच्चे थोड़ी मिटटी में सने दीख रहे थे पर चन्दन तो बुरी तरह चोट खाए था| घर के देहलीज़ पर पहुँच कर बैठ गया और हाफ्ने लगा|
“क्या हुआ चन्दन, कुछ तो बोलो,” निर्मला ने पानी का गिलास उसे पकड़ाते हुए कहा| “अरे मम्मी, चन्दन भैया ने हमे बचाते हुए चोट खाई है,” रतन ने रोते हुए कहा| “मुझे कुछ समझ नही आ रहा है रतन| ठीक से बताओ|” “बताता हूँ दीदी,” चन्दन ने मुह पोंछते हुए कहा| “शो ख़तम होने ही वाला था की किसी ने अफवाह फैला दी की पार्क में बम रखा हुआ है| फिर क्या था? लोग बुरी तरह से वहाँ से भागने लगे| ऐसी भीढ़ उमड़ी की लोग एक दुसरे पर गिरने लगे| मैंने एक तरफ बच्चों को बिठा लिया और भीड़ छटने पर वहाँ से चला|”
“मम्मी चन्दन भैया ने हमारे ऊपर अपने को ढाल बनाली और लोग भागते हुए भैया के ऊपर से हो कर निकलने लगे| पता नही कितने लोगों के पैरों तले कुचले गए हैं चन्दन भैया पर हमारे ऊपर कोई आंच नही आने दी,” शालू ने आँखें पोंछते हुए कहा|
निर्मला की आँखें भी भींग आई थी| उसने फर्स्ट ऐड बॉक्स की सहायता से चन्दन की मरहम पट्टी की, फिर उसे पेन किलर देकर चारपाई डाल कर बरामदे में लिटा दिया| इस बीच, रमेश भी आ गए और उन्होंने सारी बातें सुनी तब रसोई में आकर निर्मला से कहा, “देखो तो, चन्दन कितना सच्चा इंसान है| इतना तो हम भी बच्चों के लिए नही कर पाते|”
निर्मला के मन में पश्चाताप की आंधी उठ रही थी की क्यूँ उसने चन्दन के बारे में गलत सोचा| उसमे जो इंसानियत थी वह अमीर और बड़े बड़े लोगों, रिश्ते दारों या पड़ोसियों में भी नहीं दिखाई देती|
रात का खाना चन्दन ने वर्मा परिवार के साथ खाया और घर जाते जाते उसे ग्यारह बज गए|
डिस्क्लेमर: यह एक काल्पनिक कहानी है|
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